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Mirza Ghalib(complete shayari)

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है 
अपने जी में हमने ठानी और है 
आतिश -ऐ -दोज़ख में ये गर्मी कहाँ 
सोज़-ऐ -गम है निहानी और है
बारह देखीं हैं उन की रंजिशें , 
पर कुछ अब के सरगिरानी और है 
देके खत मुँह देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगाम -ऐ -ज़बानी और है 
हो चुकीं ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम ,
एक मर्ग -ऐ -नागहानी और है .






क्या बने बात 

नुक्ता चीन है , गम -ऐ -दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात , जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उस को , मगर ऐ जज़्बा -ऐ -दिल 
उस पे बन जाये कुछ ऐसी , के बिन आये न बने
खेल समझा है , कहीं छोड़ न दे , भूल न जाये 

काश ! यूँ भी हो के बिन मेरे सताए न बने


खेल समझा है , कहीं छोड़ न दे , भूल न जाये 
काश ! यूँ भी हो के बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यूँ तेरे खत को कह अगर 
कोई पूछे के ये क्या है , तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं , तो किया 
हाथ आएं , तो उन्हें हाथ लगाये न बने
कह सकेगा कौन , ये जलवा गारी किस की है 
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
मौत की रह न देखूं ? के बिन आये न रहे 
तुम को चाहूँ ? के न आओ , तो बुलाये न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं , है ये वो आतिश ग़ालिब 
के लगाये न लगे , और बुझाए न बने


दिया है दिल अगर

दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये 
हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे 
काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये
ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब 
की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये
समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल 
की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल 
हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये
कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन 
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये

कोई दिन और

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें 
चल निकलते जो में पिए होते 
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो 
काश के तुम मेरे लिए होते 
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी या रब कई दिए होते 
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते

दिल-ऐ -ग़म गुस्ताख़

फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल 
दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया 
कोई वीरानी सी वीरानी है .
दश्त को देख के घर याद आया

बज़्म-ऐ-ग़ैर

मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब 
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना 
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के माकन अपना



कागज़ का लिबास

सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास 
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले 
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ 
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले

नज़ाकत

इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं तो क्या 
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने 
कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है ,
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने

रक़ीब

कितने शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब 
गालियां खा के बेमज़ा न हुआ 
कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं 
आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न हुआ






खमा -ऐ -ग़ालिब


बहुत सही गम -ऐ -गति शराब कम क्या है 
गुलाम -ऐ-साक़ी -ऐ -कौसर हूँ मुझको गम क्या है 
तुम्हारी तर्ज़ -ओ -रवीश जानते हैं हम क्या है 
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है 
सुख में खमा -ऐ -ग़ालिब की आतशफशनि 
यकीन है हमको भी लेकिन अब उस में दम क्या है

हो चुकी ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम

कोई , दिन , गैर  ज़िंदगानी और है 
अपने जी में  हमने ठानी और है .
आतशे – दोज़ख में , यह गर्मी कहाँ ,
सोज़े -गुम्हा -ऐ -निहनी और है .
बारहन उनकी देखी हैं रंजिशें ,
पर कुछ अबके सिरगिरांनी और है .
दे के खत , मुहँ देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगामे जुबानी और है .

हो चुकी ‘ग़ालिब’, बलायें सब  तमाम ,
एक मरगे -नागहानी और है .

मेरी वेहशत

इश्क़ मुझको नहीं वेहशत ही सही 
मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही 
कटा कीजिए न तालुक हम से 
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही

ग़ालिब

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई 
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई
मारा ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को 
वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई




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