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Poem (Haseen)




आखिर ये भी तो हसीन ही है..

सर्दियों में ज़रा सी धूप का रहना,
गर्मियों में ठंडी हवाओं का बहना,

उगते हुए सूरज की पड़ती हुई लाली,
चिड़ियों का चहचहाना, जैसे मिठास की हो थाली,

बारिश की शोर में वो मिट्टी की आवाज़,
कुछ ऐसा जैसे मिटी हो धरती की प्यास,

कुछ नया कुछ अजीब हर पल में ले आना,
ज़िंदगी का हमसे कुछ सवाल कर जाना,

बेबाक होकर, कुछ ख्वाहिशें लेकर,
हर पल में खुशियाँ सजाते रहना,
जो मुश्किल हो कभी ज़िंदगी की घड़ी,
उसको तुम बस गुज़र जाने देना।

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Aakhir ye bhi to haseen hi hai,

Sardiyon me zara si dhoop ka rehna,
Garmiyon me thandi hawaon ka behna,

Ugte hue sooraj ki padti hui laali,
Chidiyon ka chehchahana, jaise mithaas ki ho thaali,

Baarish ki shor me wo mitti ki aawaaz,
Kuch aisa jaise miti ho dharti ki pyaas,

Kuch naya kuch ajeeb har pal me le aana,
Zindagi ka humse kuch sawaal kar jaana,

Bebaak hokar, kuch khushiyan lekar,
HAr pal me khushiyan sajate rehna,
Jo mushkil ho kabhi zindagi ki ghadi,
Usko tum bas guzar jaane dena.
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Mirza Ghalib(complete shayari)

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है 
अपने जी में हमने ठानी और है 
आतिश -ऐ -दोज़ख में ये गर्मी कहाँ 
सोज़-ऐ -गम है निहानी और है
बारह देखीं हैं उन की रंजिशें , 
पर कुछ अब के सरगिरानी और है 
देके खत मुँह देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगाम -ऐ -ज़बानी और है 
हो चुकीं ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम ,
एक मर्ग -ऐ -नागहानी और है .






क्या बने बात 

नुक्ता चीन है , गम -ऐ -दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात , जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उस को , मगर ऐ जज़्बा -ऐ -दिल 
उस पे बन जाये कुछ ऐसी , के बिन आये न बने
खेल समझा है , कहीं छोड़ न दे , भूल न जाये 

काश ! यूँ भी हो के बिन मेरे सताए न बने


खेल समझा है , कहीं छोड़ न दे , भूल न जाये 
काश ! यूँ भी हो के बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यूँ तेरे खत को कह अगर 
कोई पूछे के ये क्या है , तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं , तो किया 
हाथ आएं , तो उन्हें हाथ लगाये न बने
कह सकेगा कौन , ये जलवा गारी किस की है 
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
मौत की रह न देखूं ? के बिन आये न रहे 
तुम को चाहूँ ? के न आओ , तो बुलाये न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं , है ये वो आतिश ग़ालिब 
के लगाये न लगे , और बुझाए न बने


दिया है दिल अगर

दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये 
हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे 
काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये
ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब 
की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये
समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल 
की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल 
हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये
कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन 
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये

कोई दिन और

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें 
चल निकलते जो में पिए होते 
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो 
काश के तुम मेरे लिए होते 
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी या रब कई दिए होते 
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते

दिल-ऐ -ग़म गुस्ताख़

फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल 
दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया 
कोई वीरानी सी वीरानी है .
दश्त को देख के घर याद आया

बज़्म-ऐ-ग़ैर

मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब 
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना 
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के माकन अपना



कागज़ का लिबास

सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास 
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले 
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ 
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले

नज़ाकत

इस नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं तो क्या 
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने 
कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है ,
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने

रक़ीब

कितने शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब 
गालियां खा के बेमज़ा न हुआ 
कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं 
आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न हुआ






खमा -ऐ -ग़ालिब


बहुत सही गम -ऐ -गति शराब कम क्या है 
गुलाम -ऐ-साक़ी -ऐ -कौसर हूँ मुझको गम क्या है 
तुम्हारी तर्ज़ -ओ -रवीश जानते हैं हम क्या है 
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है 
सुख में खमा -ऐ -ग़ालिब की आतशफशनि 
यकीन है हमको भी लेकिन अब उस में दम क्या है

हो चुकी ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम

कोई , दिन , गैर  ज़िंदगानी और है 
अपने जी में  हमने ठानी और है .
आतशे – दोज़ख में , यह गर्मी कहाँ ,
सोज़े -गुम्हा -ऐ -निहनी और है .
बारहन उनकी देखी हैं रंजिशें ,
पर कुछ अबके सिरगिरांनी और है .
दे के खत , मुहँ देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगामे जुबानी और है .

हो चुकी ‘ग़ालिब’, बलायें सब  तमाम ,
एक मरगे -नागहानी और है .

मेरी वेहशत

इश्क़ मुझको नहीं वेहशत ही सही 
मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही 
कटा कीजिए न तालुक हम से 
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही

ग़ालिब

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई 
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई
मारा ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को 
वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई




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Mirza Ghalib (Hindi)

“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है”

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुलफ के सर होने तक

हमने माना की तग़ाफ़ुल न करेंगे लेकिन
खाक हो जायगे हम तुम्हे खबर होने तक

उम्र भर हम भी गलती करते रहे ग़ालिब
धुल चेहरे पे थी और हम आईना साफ़ करते रहे
“दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए”

उनके देखने से जो आ जाती है चेहरे पे रौनक
वो समझते है के बीमार का हाल अच्छा है

नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब “
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की किस्मत ग़ालिब 
जिस की किस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना

आया है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब 
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद

गम -ऐ -हस्ती का असद किस से हो जूझ मर्ज इलाज 
शमा हर रंग मैं जलती है सहर होने तक ..

ग़ालिब ‘ हमें न छेड़ की फिर जोश -ऐ -अश्क से 
बैठे हैं हम तहय्या -ऐ -तूफ़ान किये हुए

ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है ग़ालिब 
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता

ग़ालिब” छूटी शराब पर अब भी कभी कभी ,
पीता हूँ रोज़ -ऐ -अबरो शब -ऐ -महताब में

“हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले”
“इश्क पर ज़ोर नहीं है,
ये वो आतिश गालिब कि लगाए न लगे और बुझाए न बने”
“न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझको होनी ने, न होता मैं तो क्या होता?”



“उनके देखने से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है”
“दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस दर्द की दवा क्या है”
“इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी आदमी थे काम के”
“आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद,
मुझ से मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न मांग”

“इस कदर तोड़ा है मुझे उसकी बेवफाई ने गालिब,
अब कोई प्यार से भी देखे तो बिखर जाता हूं मैं”
“हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे”
“हर एक बात पर कहते हो तुम कि तो क्या है,
तुम्ही कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तगु क्या है?
रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं कायल,
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?”
 हाथों की लकीरों पर मत जा ए ग़ालिब,
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होता”
“इशरत-ए-कतरा है दरिया मैं फना हो जाना,
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना”
“मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पर दम निकले”

रही न ताक़त -ऐ -गुफ्तार और अगर हो भी ,
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है ..

रात है ,सनाटा है , वहां कोई न होगा, ग़ालिब
चलो उन के दरो -ओ -दीवार चूम के आते हैं

तेरे हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है ग़ालिब 
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद 
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